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Tuesday, May 11, 2010

मेरा मन उस जैसा.....

मन बिहंग के इस आँचल मे सारा छितिज है बौना बौना ,
दौडे यह हर उस कोने मे दिखता जिधर भी कोई खिलौना ॥
सभी खिलौने होते नस्वर PR अभिलासभिलाषाओं के VIRAT पग
चलते चलते कभी न थकते आतुर भरते हैं विशाल डग ।
इन्नेहेय रोकना नहीं सरल है किन्तु असम्भव नहीं है कुछ भी ,
वल्गाओं की डोर थाम हम रोक सकेंगे वेगित रथ भी ।
इछाओं को दमन नही बस करें नियंत्रण केवल उन पर
सब कुछ ही सामान्य रहेगा देखो इन पर थोडा चलकर ॥

2 comments:

अरुणेश मिश्र said...

NICE

देवेन्द्र पाण्डेय said...

वाह!
आपके ब्लॉग पर पहली बार आया। परिचय ने प्रभावित किया। यहां तक की सभी पोस्ट पढ़ी। सभी कविताओं के भाव दिल को छू लेने वाले हैं।
..सादर प्रणाम।