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Monday, April 19, 2010

भावनाएं और यथार्थ क्या स्वार्थ के पूरक हैं

भावनाओं ka प्रवाह vयक्ति के मानश को उथल पुथल की कगार पर पहुच सकता है । वास्तव में प्राणी इस संसार में जब आता है उस समय उसका मानस पटल एक कोरे कागज की तरह होता है परन्तु ज्यों ज्यों वह माया तथा माया जनित स्वार्थो के घेरे में पड़ता जाता है त्यों त्यों वह एकाकी एवं स्वार्थी सा होता जाता है। उसे एन सब बोटों से मतलब नहीं होता है की उसके कृत्य अथवा विचारों एवं मत का कुप्रभाव उसके अपने पर क्या पड़ेगा। उसे केवल और केवल अपने दुर्गमे हितो के प्रभावित हनी की ही एकमात्र चिंता रहती है । संयोगवश यदि आपके पास achal सम्पति है तो उपरोक्त कथन आप पर शतप्रतिशत सत्य होगा। यहाँ तक की आपके अपने ह्रदय के tउकडे aaपके हितो की उपेछा करने में किंचित भी नहीं हिचकेंगे keyonke aapke hit unkey niji स्वार्थो को प्रभावित करते हैं। ऐसे में हमे भावनात्मक होकर नहीं अपितु yathart के dhartal पर vastavikta /avasyakta/ doogami परिणामों को ध्यान में ही रखकर कदम बढ़ाना चाहिए।

बस इतना ही...अपने को ....

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