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Friday, April 9, 2010

in dono ko...

मेरी बेटी
मेरी बेटी , कुछ-कुछ पागल सी ,अपनी सरलता के साथ ,मासूम प्रतिमा सी लगती है।है वह बहुत कुछ हठीली जिद्दी सी ,पर बातों के अपनत्व से ,मात्र प्रतिमूर्ति सी लगती हैवह खुश रहना चाहती है ,अपने घर की दुनिया में ,खिलौनों के छोटे संसार में।बाहर निकलने से बहुत घबराती है ,बड़ों की बड़ी दुनिया में ,परिचित-अजनबी चेहरों के बीच ,वह अचानक सहम सी जाती है ,शायद वह अकेली हो जाती है।खिलौनों के संग खेल में ,अक्सर जिद करती है अजीब सी ,साथ मेरे बात करो , दौड़ो-भागो ,खिलौनों से ऐसा वह कहती है।पर कोई भी बात नहीं करता ,मौन और गहरा जाता है ,मेरी बेटी शायद गुस्सा हो जाती है ,हर खिलौना तोड़ देना चाहती है ,और थोड़ी देर बाद ,खिलौनों को पुनः सहेज कर ,बिखराव मिटा देना चाहती है ,अक्सर यह घटना दोहराई जाती है।यह देखकर मैं कहने लगता हूं ,बेटे , ऐसा कभी होता नहीं ,अच्छा अब हंस दो तुम ,तू मुस्कराती अच्छी लगती है।मेरी बेटी समझने की कोशिश में ,और उलझनों में डूबी सी ,ऐसा सचमुच नहीं होता है ?यह प्रश्न मुझसे पूछती है ,मैं स्वयं उलझ जाता हूं ,उत्तर तलाशने लगता हू।अच्छा , मुझको गुड़िया बना दो न ;वह स्वयं उत्तर तलाश लेती है।उसकी उलझनों के आगे ,समझदारी व्यर्थ प्रतीत होती है।उसको गोद में लेकर थपकी देकर ,सुला देना चाहता हूं।शायद जागने पर वह, यह यक्ष प्रश्न भूल जाए ,और हंसती-खेलती-मुस्कराती रहे सदा , मेरी बेटी।। ( this is not written by me ....experienced )

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